Saree : अगर भारत में नहीं हुई साड़ी की उत्पत्ति तो कहां हुई, जानें जवाब
Saree: If saree did not originate in India then where did it originate, know the answer

Saree : यह बात बिल्कुल सही है कि किसी भी देश की पहचान उसकी भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या, राजनीतिक व्यवस्था, नृजातीयता एवं सांस्कृतिक परिवेश से होती है। विश्व पटल पर हमारा देश भारत इन सभी पहचान के तत्वों के साथ-साथ अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए विशेष रूप से जाना जाता है।
जब भी हमारे देश की महिलाओं के पारंपरिक पोशाक की चर्चा होती है तो वहां सबसे पहले साड़ी का नाम आता है। ऐसी मान्यता है कि साड़ी विश्व की सबसे लंबी और पुराने परिधानों में से एक है। यह कहना गलत नहीं होगा कि आदिकाल से भारतीयता की पहचान है साड़ी।
वैसे भी हम जब भी साड़ी पहने किसी भी महिला को देखते हैं तो हम उसे भारतीयता से जोड़ देते हैं। ऐसा आखिर करें भी क्यों न हम क्योंकि यह परिधान हमारे देश में राष्ट्रीय पोशाक से कुछ कम नहीं माना जाता है। हमारे देश की महिलाओं के लिए साड़ी के बिना कोई पर्व अधुरा सा है। चाहे शादी-विवाह, चाहे करवा चौथए चाहे तीज या फिर अन्य किसी सांस्कृतिक उत्सवों पर सजना संवरना हो महिलाओं का तो बिना साड़ी के मानो श्रृंगार ही पूरा नही होता।
इस लेख में हम ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से आप तक साड़ी की वास्तिविक उत्पत्ति कहाँ हुई इसकी तथा भारत में पाए जाने वाले साड़ियों के प्रकार के बारे जानकारी देने का प्रयास कर रहे हैं। तो आईये चलिए जानते हैं।
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क्या है साड़ी (Saree) का साहित्यिक साक्ष्य?
सबसे पहले हम जानते हैं साड़ी के साहित्यिक साक्ष्य (literary evidence of sari) के बारे में। साड़ी का शाब्दिक अर्थ (literal meaning of saree) संस्कृत के अनुसार होता है कपड़े की पट्टी। जातक नामक बौद्ध साहित्य में प्राचीन भारत के महिलाओं के वस्त्र को सत्तिका शब्द से वर्णित किया गया है। चोली का विकास प्राचीन शब्द सनापत्ता से हुआ है जिसको मादा शरीर से संदर्भित किया जाता था।
कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी के अनुसार कश्मीर के शाही आदेश के तहत दक्कन में चोली प्रचलित हुआ था। बानभट्टा द्वारा रचित कदंबरी और प्राचीन तमिल कविता सिलप्पाधिकरम में भी साड़ी पहने महिलाओं का वर्णन किया गया है।

कैसे और कहां हुई साड़ी (Saree) की उत्पत्ति
कुछ इतिहासकारों की अगर मानें तो कपड़े बुनाई की कला 2800-1800 ईसा पूर्व के दौरान मेसोपोटामिया सभ्यता (mesopotamian civilization) से भारत आई थी। वैसे तो समकालीन सिंधु घाटी सभ्यता सूती कपड़े से परिचित थे और वस्त्र के रूप में लंगोट जैसा कपड़े का इस्तेमाल करते थे क्योंकि पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान कपास के कुछ अवशेष, सिंध से प्राप्त हुये हैं लेकिन बुनाई की कला का साक्ष्य अब तक नहीं मिला है।
जब भारत में 1500 ईसा पूर्व के बाद आर्यों का आगमन (Arrival of Aryans in India) हुआ तो पहली बार उन्होंने ही वस्त्र शब्द का इस्तेमाल किया था जिसका अर्थ उनके लिए पहनने योग्य चमड़े का एक टुकड़ा था।
समय के साथ, कमर के चारों ओर कपड़े की लंबाई पहनने की यह शैली, खासतौर से महिलाओं के लिए, और कपड़ा खुद को नीवी के रूप में जाना जाने लगा। हम यह कह सकते हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) की महिलाओं द्वारा पहना गया साधारण लंगोट जैसा कपड़ा भारत की कई शानदार साड़ी का प्रारंभिक अग्रदूत था।
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उसके बाद मौर्य से लेकर सुंग तक और फिर मुग़ल काल से ब्रिटिश काल तक साड़ियों के पहनने के तौर तरीके (Ways to wear sarees) में बदलाव आया है जैसे-मौर्य और सुंग काल में आयताकार साड़ी नुमा कपड़ा इस्तेमाल हुआ करता था जो केवल महिलाओ के शरीर के निचले भाग को ही ढंकता थाय उसके बाद धीरे. धीरे परिधान की लम्बाई बढती गयीय और फिर मुग़ल काल में एक क्रांतिकारी बदलाव हुए जैसे सिलाई की कला से इस परिधान को परिपूर्ण कर दिया गया।
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तरह-तरह की साड़ियाँ (Different Types of Sarees)
भारत की पारंपरिक साड़ियाँ भारत के 28 राज्यों की विविधता और उत्कृष्ट संस्कृति का उदाहरण पेश करती हैं। अलग-अलग शैली की साड़ियों में कांजीवरम साड़ी, बनारसी साड़ीए पटोला साड़ी और हकोबा मुख्य हैं। बिहार की मधुबनी छपाई, मध्य प्रदेश की चंदेरी-महेश्वरी, असम की मूंगा रेशम, उड़ीसा की बोमकई, राजस्थान की बंधेज, गुजरात की गठोडा, पटौला, बिहार की टस्सर, काथा, छत्तीसगढ़ी कोसा रेशम, दिल्ली की रेशमी साड़ियां झारखंडी कोसा रेशम, महाराष्ट्र की पैथानी, तमिलनाडु की कांजीवरम, बनारसी साड़ियां, उत्तर प्रदेश की तांची, जामदानी, जामवर एवं पश्चिम बंगाल की बालूछरी एवं कांथा टंगैल आदि वैसे तो कई प्रसिद्ध साड़ियाँ हैं। आईये कुछ प्रमुख साड़ियों के बारे में जानते हैं।

मध्य प्रदेश की महेश्वरी साड़ी (Maheshwari Saree)
यह साड़ी मुख्यत मध्य प्रदेश में पहनी जाती है। पहले यह सूती साड़ी ही बनाई जाती थी लेकिन अब धीरे.धीरे रेशम की भी बनाई जाने लगी है। इसका इतिहास काफी पुराना है। होल्कर वंश की महान शासक देवी अहिल्याबाई ने ढाई सौ साल पहले गुजरात से लाकर महेश्वर में कुछ बुनकरों को बसाया था और उन्हें घरए व्यापार और अन्य सुविधाएं दी थीं। यही बुनकर महेश्वरी साड़ी तैयार करते थे।
उत्तरप्रदेश की बनारसी साड़ी (Banarasi Saree of Uttar Pradesh)
बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है जो शुभ अवसरों पर पहनी जाती है। यह मुख्यत उत्तरप्रदेश के चंदौलीएबनारसए जौनपुरए आजमगढ़ए मिर्जापुर और संत रविदासनगर जिले में बनाई जाती है। रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग जरी के डिजायन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी साड़ी कहा जाता है।
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महाराष्ट्र की महाराष्ट्रियन साड़ी (Maharashtrian Saree)
महाराष्ट्र में खास साड़ी पहनी जाती है जो नौ गज लंबी होती हैए इसे पैठणी कहते हैं। यह पैठण शहर में बनती है इस साड़ी को बनाने की प्रेरणा अजन्ता की गुफा में की गई चित्रकारी से मिली थी। इससे पहनने का अपना पारंपरिक स्टाइल है जो महाराष्ट्र की औरतों को ही आता है।

गुजरात की पटोला साड़ी (Patola Saree of Gujarat)
पटोला साड़ी नाम सुनकर आपको थोड़ा अजीब लगेगा. लेकिन यह साड़ी अपने आप में बेहद खास है। यह साड़ी मुख्यत हथकरघे से बनती है। पटोला साड़ी दोनों ओर से बनाई जाती है और इसमें बहुत ही बारीक काम किया जाता है। यह रेशम के धागों से बनाई जाती है। पटोला डिजायन और पटोला साड़ी भी अब लुप्त होने की कगार पर है। इसका कारण है कि इसके बुनकरों को लागत के हिसाब से कीमत नहीं मिल पाती।
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पटोला साड़ी का इतिहास (History of Patola Saree)
पाटन पटोला साड़ी का इतिहास 900 साल पुराना है। पटोला आर्ट इतनी ज्यादा अनमोल है कि 1934 में भी एक पटोला साड़ी की कीमत 100 रुपए थी। कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा कुमारपाल ने महाराष्ट्र के जलना से बाहर बसे 700 पटोला बुनने वालों को पाटन में बसने के लिए बुलाया और इस तरह पाटन पटोला की परंपरा शुरू हुई थी। राजा अपने होने वाले खास अवसरों पर पटोला सिल्क का पट्टा ही पहनते थे। पाटन में केवल 1 ऐसा परिवार हैं, जो ओरिजनल पाटन पटोला साड़ी बनाने की कला को संजोए हुए है और इस विरासत को आगे बढ़ा रहा है।